Lekhika Ranchi

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आचार्य चतुसेन शास्त्री--वैशाली की नगरबधू-



58. सर्वजित् महावीर : वैशाली की नगरवधू

सात हाथ ऊंचा एक बलिष्ठ क्षत्रियकुमार जिसके लौह-स्तम्भ जैसे सुदृढ़ भुजदण्ड थे और उन्नत विशाल वक्ष था, जिसकी कलाइयों में धनुष की डोरी खींचने के चिह्न थे, जिसका वर्ण अत्यन्त गौर, नेत्र भव्य और विशाल, मुख गंभीर, कम्बुग्रीवा और आजानुबाहु थी, चुपचाप दृष्टि पृथ्वी पर दिए लाटदेश के पांव प्यादेविचरण कर रहा था। यह पुरुष एकाकी था और उसके शरीर पर एक चिथड़ा भी न था।

उसे कभी-कभी बैठने का आसन भी प्राप्त नहीं होता था और वृक्ष के सहारे नंगी भूमि पर बैठकर श्रान्ति को दूर करना पड़ता था। बहुधा लोग उसे उन्मत्त समझकर मारते, बालक उसके पीछे टोली बांधकर छेड़-छाड़ करते चिल्लाते हुए घूमते थे। कई-कई दिन बाद उसे बहुत कम रूखा-सूखा कुछ मिल जाता था। कुत्ते उसे देखकर भूकने लगते। कभी-कभी वे दौड़कर उसकी टांगों का मांस नोंच ले जाते थे। उपद्रवी लड़के कुत्तों को उत्तेजित करके उस पर दौड़ाते थे, परन्तु यह महावीर पुरुष इन सब दुःखों पर विजय पाता, सुख-दुःख में समभाव रखता, निर्विरोध चुपचाप मौन भाव से आगे बढ़ता जाता था। बहुत बार दूर-दूर तक गांव-बस्ती का चिह्न भी न होता था। कहीं-कहीं गांव के निकट आने पर गांव के लोग बाहर आकर उसे मार-पीटकर भगा देते थे या उस पर धूल, पत्थर, घास, गन्दगी फेंकते थे। ऐसा भी होता था कि उसे लोग उठाकर पटक देते थे या चुपचाप ध्यान में बैठे हुए को धकेलकर आसन से गिरा देते थे।

यह पुरुष महातीर्थंकार महावीर जिन था, जिसने अपनी कुल-परम्परा के आधार पर अपनी किशोरावस्था आयुधजीवी होकर व्यतीत की थी और जो अब कामभोग की परितृप्ति के लिए, मायामय आचरण, संयमसहित, वैर-भाव से मुक्त हो आत्मा का अहित करनेवाली प्रवृत्तियों को त्यागकर, पाप-कर्मरूप कांटे को जड़मूल से खींच निकालने में सतत यत्नशील था। अहिंसा उसका मूलमन्त्र था।

यह सर्वजित् पुरुष प्रत्येक वर्षाऋतु का चातुर्मास किसी नगर-ग्राम में ठहरकर काटता था। चार-चार उपवास करता और वर्षा की समाप्ति पर फिर पैदल यात्रा करता था। इस प्रकार वह कठिन वज्रभूमि लाटदेश को पारकर भद्दिलपुर, कदली-समागम, कूपिक, भद्रिकापुरी, आदिग्राम आदि जनपद घूमता हुआ राजगृह में आ पहुंचा।

राजगृह में बुद्ध महाश्रमण की बहुत धूम थी। वे अनेक बार राजगृह आ चुके थे और अब नगर में भिक्षु चारों ओर घूमते दीख पड़ते थे। परन्तु इस श्रमण का आचार-व्यवहार ही भिन्न था। महाश्रमण बुद्ध ब्रह्मचर्य पर विशेष बल देते थे, परन्तु महावीर जिन अहिंसा पर आग्रह रखते थे। वे 'छै जीवनिकाय' का उपदेश देते थे, उसी पर स्वयं भी आचरण करते और उसे धर्मज्ञान करानेवाला, चित्त शुद्ध करनेवाला और प्राणिमात्र के लिए श्रेयस्कर समझते थे।

देखते-ही-देखते यह महापरिव्राजक राजगृह में पूजित होने लगा। जानपद जनों के साथ श्रेणिक सम्राट् बिम्बसार भी इस तपस्वी को देखने आए।

शालिभद्र की एक पत्नी ने कहा—

"आर्यपुत्र ने सुना है, कि राजगृह में एक सर्वजित् अर्हत् श्रमण आए हैं, जो सब भांति शुद्ध-बुद्ध-मुक्त हैं?"

"क्या वह महाश्रमण तथागत गौतम शाक्यपुत्र हैं जिनके अनुगत सारिपुत्र मौद्गलायन और महाकाश्यप हैं?"

"नहीं, यह सर्वजित् महावीर हैं। वे निगण्ठ हैं, अल्पभाषी हैं। सेणिक मगधराज ने उनकी सेवा की है।"

"क्या वे मेरा दुःख दूर कर सकते हैं?"

"आर्यपुत्र को दुःख क्या है?"

"शुभे, तूने क्या नहीं देखा! माता मुझे आदेश देती हैं कि मुझे क्या करना चाहिए। हन्त, मैं बन्धनग्रस्त हूं। मुझे ये सब काम-भोग व्यर्थ दीख रहे हैं। मैं संतप्त हूं, मैं भारयुक्त हूं।"

"तो आर्यपुत्र हम सब क्यों न सर्वजित् परिव्राजक के दर्शन करें?"

"तब ऐसा ही हो शुभे। तू माता से जाकर अनुज्ञा ले।"

सेट्ठिवधू ने सास से कहा और सेट्ठिनी यह स्वीकार कर, सावरोध पुत्र को लेकर, जहां सर्वजित् महावीर थे, वहां पहुंची। सावरोध अर्हत् की प्रदक्षिणा की और अञ्जलिबद्ध प्रणाम कर एक ओर बैठ गई। बैठकर उसने कहा—"महाश्रमण, यह मेरा पुत्र अपनी बत्तीस पत्नियों के साथ अपने जीवन में प्रथम बार भूस्पर्श करके आपके दर्शनार्थ आया है। सम्राट् ने एक बार इसे देखना चाहा था। उस समय मेरा पुत्र सात खण्ड से नीचे कभी उतरा ही न था। तब सविनय निवेदन करने से सम्राट् स्वयं मेरे घर पधारे थे और पुत्र ने चतुर्थ खण्ड में उतरकर उनका सत्कार किया था। पुत्र को इसका बड़ा दुःख हुआ, तभी से यह उदास और विमन रहता है। सो भन्ते श्रमण, यह अब आपके दर्शनार्थ भूस्पर्श करके सावरोध आया है। इसे अमृत देकर चिरबाधित कीजिए।"

तब कुछ देर मौन रहकर महाश्रमण ने कहा—"हे आयुष्मान्, तू 'छै जीवनिकाय' को जान। जीव छः प्रकार के हैं, पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रंसकायिक। इन सब जीवों को स्वयं कभी दुःख न देना, किसी दूसरे को दुःख देने की प्रेरणा न करना, कोई दुःख देता हो तो उसे प्रेरणा न देना और इसके लिए अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पांच महाव्रत मन-वचन-कर्म से यावज्जीवन धारण करना।"

"...इन पांच महाव्रतों की पच्चीस भावनाएं हैं। आयुष्मान्, यही मैंने जीवन में धारण की है और सभी को धारण करने को कहता हूं। सब जीवों को अपने ही समान जानने और देखनेवाला इन्द्रियनिग्रही पुरुष पापमुक्त होता है। प्रथम ज्ञान और पीछे दया। अज्ञानी को आचार का ज्ञान नहीं। जीव कौन है और अजीव कौन—यह भेद जो नहीं जानता वह मोक्ष-मार्ग को भी नहीं प्राप्त हो सकता। जो जीव और अजीव के तत्त्व को जानता है वही सब जीवों की अनेकविध गति को जानता है। वह उसके कारण-रूप, पुण्य-पाप तथा बन्ध-मोक्ष को भी जानता है। उसी को दैवी तथा मानुषी भोगों से निर्वेद प्राप्त होता है और वह भोगों से विरक्त हो जाता है, बाहर-भीतर के उसके सब सम्बन्ध टूट जाते हैं और वह त्यागी परिव्राजक हो जाता है, वह सब पाप-कर्मों का त्याग कर धर्म का पालन करता है तथा अज्ञान से संचित कर्मरूपी पंक से अलिप्त हो जाता है। उसे सर्वविषयक केवली ज्ञान प्राप्त हो जाता है और वह केवल-ज्ञानी जिन लोक-अलोक के सच्चे स्वरूप को जान लेता है। तब वह अपने मन, वचन और कर्म के व्यापारों का निरोध करके शैल-जैसी निश्चल 'शैलेषी' दशा प्राप्त करता है। उस समय उसके सब कर्मों का क्षय हो जाता है। वह निरंजन होकर लोक की मूर्धा पर 'सिद्धि' गति को प्राप्त कर शाश्वत सिद्ध बन जाता है।"

महाश्रमण यह उपदेश देकर मौन हो गए। शालिभद्र ने सावरोध उठकर उनकी परिक्रमा की और अपने आवास को चल दिया।

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